21 July, 2020

मुंसी प्रेमचंद जी की एक सुंदर कविता

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     *_मुंसी प्रेमचंद जी की एक सुंदर कविता, जिसके एक-एक शब्द को बार-बार पढ़ने को मन करता है-_*


_ख्वाहिश नहीं मुझे_

_मशहूर होने की,"_


        _आप मुझे पहचानते हो_

        _बस इतना ही काफी है।_



_अच्छे ने अच्छा और_

_बुरे ने बुरा जाना मुझे,_


        _जिसकी जितनी जरूरत थी_

        _उसने उतना ही पहचाना मुझे!_



_जिन्दगी का फलसफा भी_

_कितना अजीब है,_


        _शामें कटती नहीं और_

        _साल गुजरते चले जा रहे हैं!_



_एक अजीब सी_

_'दौड़' है ये जिन्दगी,_


        _जीत जाओ तो कई_

        _अपने पीछे छूट जाते हैं और_


_हार जाओ तो_

_अपने ही पीछे छोड़ जाते हैं!_



_बैठ जाता हूँ_

_मिट्टी पे अक्सर,_


        _मुझे अपनी_

        _औकात अच्छी लगती है।_


_मैंने समंदर से_

_सीखा है जीने का सलीका,_


        _चुपचाप से बहना और_

        _अपनी मौज में रहना।_



_ऐसा नहीं कि मुझमें_

_कोई ऐब नहीं है,_


        _पर सच कहता हूँ_

        _मुझमें कोई फरेब नहीं है।_



_जल जाते हैं मेरे अंदाज से_

_मेरे दुश्मन,_


              _एक मुद्दत से मैंने_

       _न तो मोहब्बत बदली_ 

      _और न ही दोस्त बदले हैं।_



_एक घड़ी खरीदकर_

_हाथ में क्या बाँध ली,_


        _वक्त पीछे ही_

        _पड़ गया मेरे!_


_सोचा था घर बनाकर_

_बैठूँगा सुकून से,_


        _पर घर की जरूरतों ने_

        _मुसाफिर बना डाला मुझे!_



_सुकून की बात मत कर_

_ऐ गालिब,_


        _बचपन वाला इतवार_

        _अब नहीं आता!_


_जीवन की भागदौड़ में_

_क्यूँ वक्त के साथ रंगत खो जाती है ?_


        _हँसती-खेलती जिन्दगी भी_

        _आम हो जाती है!_



_एक सबेरा था_

_जब हँसकर उठते थे हम,_


        _और आज कई बार बिना मुस्कुराए_

        _ही शाम हो जाती है!_



_कितने दूर निकल गए_

_रिश्तों को निभाते-निभाते,_


        _खुद को खो दिया हमने_

        _अपनों को पाते-पाते।_



_लोग कहते हैं_

_हम मुस्कुराते बहुत हैं,_


        _और हम थक गए_

        _दर्द छुपाते-छुपाते!_



_खुश हूँ और सबको_

_खुश रखता हूँ,_


        _लापरवाह हूँ ख़ुद के लिए_

        _मगर सबकी परवाह करता हूँ।_


_मालूम है_

_कोई मोल नहीं है मेरा फिर भी_


        _कुछ अनमोल लोगों से_

        _रिश्ते रखता हूँ।_

🤝🤝🤝



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